एक बार जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुन्दर में ले जाकर डुबाना चाहता था, तो भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा किया और हिरण्याक्ष का वध कर दिया था। अपने भाई हिरण्याक्ष के वध से दुखी होकर हिरण्यकश्यप ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर जाकर ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा । जिससे वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला ले सके।
दैत्यों के राज्य को राजाविहीन देखकर देवताओं ने उनपर आक्रमण कर दिया। दैत्यगण इस युद्ध में पराजित हुए और पाताललोक को भाग गए। देवराज इन्द्र ने हिरण्यकश्यप के महल से उसकी पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। लेकिन उस समय कयाधु गर्भवती थी, इसलिए इन्द्र उसे साथ लेकर अमरावती की दिशा में जाने लगा। रास्ते में उनकी भेंट देवर्षि नारद से हो गयी। नारद जी ने पुछा – देवराज ! इसे कहाँ ले जा रहे हो ?
इन्द्र ने कहा – देवर्षी ! इसके गर्भ में हिरण्यकश्यप का अंश पल रहा है, मैं उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा। नारद मुनि ने इंद्र से कहा कि तुम एक गर्भवती स्त्री पर अत्याचार नही कर सकते और वह भी तब जब उसके गर्भ में भगवान विष्णु का भक्त पल रहा हो।
इसके पश्चात नारद मुनि कयाधु को इंद्र के चंगुल से छुड़ाकर अपने आश्रम में ले आये तथा हिरण्यकश्यप की तपस्या पूर्ण होने तक अपने आश्रम में रखा। इस दौरान नारद मुनि कयाधु को हरी भजन सुनाते व भगवान विष्णु की कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करते थे। नारद मुनि के द्वारा भगवान विष्णु की कथाओं को सुनाने से सकारात्मक प्रभाव कयाधु के गर्भ में पल रहे अजन्मे प्रह्लाद पर भी पड़ रहा था। ऐसी कारण जब उसका जन्म हुआ तब वह विष्णु भक्त बना।
हिरण्यकश्यप की तपस्या समाप्त हो गयी तथा भगवान ब्रह्मा से उसने तीनों लोकों में सर्वशक्तिशाली होने का वरदान प्राप्त कर , वह पुनः अपनी दैत्य नगरी वापस आ गया और वहां देवताओं का अधिकार हुए देखा। उसने अपने मिले वरदान से ना केवल दैत्य नगरी को वापस लिया, अपितु तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और इंद्र देव का स्वर्ग और सिन्हासन छीन लिया।
हिरण्यकश्यप की तपस्या समाप्त हो जाने और अपनी नगरी लौट आने की सूचना मिलने के पश्चात कयाधु और भक्त प्रह्लाद भी नारद मुनि से आशीर्वाद लेकर अपनी नगरी लौट आये।
हिरण्यकश्यप, भगवान ब्रह्मा से वरदान पाने के बाद अति-शक्तिशाली हो चुका था। इसी अहंकार में उसने विष्णु को भगवान मानने से मना कर दिया और स्वयं को भगवान मानने लगा। तीनों लोकों में जो कोई भी विष्णु की पूजा करता, वह उसे मरवा डालता किंतु जब उसने अपने स्वयं के पुत्र को ही विष्णु भक्ति में लीन देखा तो क्रोध की अग्नि में जलने लगा।
उसने अपने पांच वर्ष के छोटे से पुत्र प्रह्लाद को मारने की कई बार चेष्ठा की लेकिन हर प्रयास असफल रहा। उसने प्रह्लाद को पागल हाथियों के सामने फेकवा दिया जिससे वह उनके पैरों के नीचे कुचलके मारा जाये, सांपों से भरे कुएं में फेकवा दिया, ऊपर पर्वत की चोटी से नीचे खाई में फेंक दिया, बेड़ियाँ बांधकर समुंद्र में फेकवाया, अस्त्र-शस्त्र से मरवाने की कोशिश की और अंत में अपनी बहन होलिका के द्वारा अग्नि में जलवाने की कोशिश की लेकिन हर बार प्रह्लाद के प्राणों की रक्षा करने स्वयं भगवान विष्णु आ जाते।
अग्नि में जलवाने की कोशिश असफल रहा तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को एक खम्भे में बाध कर बोला, क्या तेरे भगवान इस खम्भे में भी है तो प्रह्लाद में बोला है इस खम्भे में भी है , तो हिरण्यकश्यप ने अपने गदा से खम्भे पर प्रहार किया।
खम्भे पर प्रहार के बाद खम्भे से भगवन बिष्णु नरसिंग का अवतार लेकर प्रकट होते है और हिरण्यकश्यप को मार देते है। और प्रह्लाद को राज सिंहासन पर बैठा देते है। प्रह्लाद की विष्णु भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे तीनों लोकों का राज प्रदान कर देते है।
अपने पिता हिरण्यकश्यप की मृत्यु के बाद प्रह्लाद तीनों लोकों का राजा बन गया। दैत्य कुल से होते हुए भी उसने अहिंसा तथा धर्म का मार्ग अपनाया तथा सभी की रक्षा की। और राज्य में सभी प्रजा कुशल मंगल, खुशहाली से रह रही थी। वह प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान करता था तथा बिना अस्त्र उठाये सभी पर विजय पा लेता था।
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