सूर्यवंशी कुल के राजा हरिश्चंद् अयोध्या नगरी के एक प्रतापी राजा थे। राजा हरिश्चंद् का जीवनकाल सतयुग से सम्बन्धित है। राजा हरिश्चंद् अपने वचन पर अडिग रहने वाले और सत्य के धर्म पर चलने वाले थे। राजा हरिश्चंद् अपने धर्म की मर्यादा को कायम रखने के लिए अपने स्वपन को भी सच मानते थे, और उसको पूरा करते थे। परोपकारी राजा हरिश्चंद् नित्य दान करते थे ।
ऐसा कहा जाता हैं कि हरिश्चन्द् सवेरे खाना खाने से पहले स्वर्ण, गौ, जल, भूमि, भोजन इत्यादि का दान किया करते थे । इसके पश्चात् भोजन को ग्रहण करते थे। राजा हरिश्चंद् की पत्नी नाम रानी तारावती, और इनके पुत्र का नाम रोहित था। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय थे और इसके लिए इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े।
ये बहुत दिनों तक पुत्रहीन रहे, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने कुलगुरु वशिष्ठ के उपदेश से इन्होंने वरुणदेव की उपासना की तो पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम रोहित रखा गया ।
एक रात राजा हरिश्चंद् को एक स्वप्न आया कि उन्होंने अपने महल को किसी ब्राह्मण को दान कर दिया है। जब सुबह आँख खुली तो वे स्वप्न की घटना को भूल गए थे। नित्य के काम निपटाकर जब हरिश्चंद् अपने दरबार में गए तो उस दिन उनसे मिलने ब्राह्मणों के साथ महर्षि विश्वामित् आ गए।
महर्षि विश्वामित् के पैर धोकर राजा हरिश्चंद् ने उनका स्वागत किया। राजा हरिश्चंद् को अपने स्वप्न की घटना याद आ गयी। अपने स्वप्न की मर्यादा को रखने के लिए उन्होंने विश्वामित् से अनुरोध किया कि – क्या आप मेरे महल को दान में स्वीकार करेंगे?
महर्षि विश्वामित् ने राजा हरिश्चन्द् के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। राजा हरिश्चन्द् ने सभी ब्राह्मणों को भोजन करवाया, और दक्षिणा देने लगे।
महर्षि विश्वामित्र ने उनको रोका और कहा – अब इस सम्पति पर आपका कोई अधिकार नहीं हैं, इनका आप पहले ही दान कर चुके हैं।इतना कहकर विश्वामित् ने राजा हरिश्चंद्, रानी तारावती और रोहित के आभूषण उतरवा लिए, और दक्षिणा की मांग करने लगे।
राजा हरिश्चंद् ने निवेदन किया कि मैं पहले आपको सब कुछ दे चुका हूँ, अब मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं हैं।
इस बात पर विश्वामित् ने कहा कि आपने महल हमको समर्पित किया, वह दान हैं। हमने आपके यहाँ भोजन किया उसकी दक्षिणा अलग से चाहिए।
हमारे साथ यहाँ पर जितने भी ब्राहमण हैं , कम से कम एक एक स्वर्ण मुद्राएँ तो दक्षिणा में देनी चाहिए।अन्यथा तुम पाप के भागीदारी बनोगे।
राजा हरिश्चन्द् संकट में पर गए और उन्होंने इसके लिये एक महीने का समय माँगा। फिर तीनों वहां से निकल गए। विश्वामित् ने उन तीनो को अपनी नगरी से बाहर जाने को कहा, वे वहां अयोध्या नगरी में रहकर काम नहीं कर सकते थे।
विश्वामित् के कहे अनुसार हरिश्चंद् अपने परिवार के साथ शिव नगरी काशी पहुँच गए। काशी में पहुँचकर हरिश्चन्द् ने काम ढूंढने की कोशिश की लेकिन उनको कोई काम नहीं मिला।
राजा हरिश्चंद् गंगा घाट पर बैठे, विश्वामित् का ऋण चुकाने के लिए धन कमाने की सोच रहे थे। राजा हरिश्चंद् ने माँ गंगा से प्रार्थना की, अगर मैंने अपने जीवन में सत्य धर्म को निभाया हैं तो आज मेरे धर्म की रक्षा कर लेना।
रानी तारावती वहां आई और कहने लगी कि आप मुझे बेच क्यों नहीं देते?
राजा हरिश्चंद् बोले, एक पति होते हुए मेरा धर्म हैं की तुम्हारी रक्षा करूँ, मैं तुम्हें बेचकर अपने पति धर्म को नष्ट नहीं कर सकता।
रानी तारा ने अपने पति के धर्म की रक्षा के लिए खुद को बेचने का निश्चय किया और काशी के बाज़ार में जाकर खड़ी हो गई।रानी ने आवाज़ लगाई की कोई हैं जो मुझे खरीद सकता हैं। तब वहां एक पंडित वहां आ गये।
पंडित ने कहा कि उसकी पत्नी बीमार रहती हैं। मेरी पूजा की तैयारी और मेरी पत्नी की सेवा कर सकती हो तो मैं तुम्हें खरीद सकता हूँ।
रानी तारावती ने हाँ भर दी और अपनी कीमत मांगी, पंडित ने 500 मुद्राएँ देने को कहा। रानी ने उन 500 स्वर्ण मुद्राओं को लिया और राजा हरिश्चंद् के चरणों में समर्पित कर दी।रानी तारावती ने कहा कि उसने अपने पत्नी धर्म को पूरा किया है, कोई गलती हुई हो तो उसको क्षमा कर दे। अब वह दासी बन गयी हैं, इसलिए वह उनसे दूर जा रही हैं।
इतने में वह पंडित तारावती को दर्दनाक स्थिति से बालों को पकड़कर घसीटता हुआ लेकर गया। हरिश्चन्द् ने आपनी आखों को बंद कर लिया। वह रानी जिसके पास सैकड़ों दासियाँ रहती थी, जिसके लिए फूल उठाना भी भारी था, आज वह किसी और के घर चूल्हा फूकेंगी, कुएं से पानी भरेगी और दास बनकर किसी की सेवा करेगी।
बेटा रोहित भी अपनी माता के साथ रहता था। इधर हरिश्चंद् एक चांडाल के सेवक का कार्य करने लगे। हरिश्चंद् का कार्य दाह-संस्कार के बदले मुल्य वसूलने का था।
कुछ समय ऐसे ही बीता, सेठानी ने बालक रोहित को भगवान की पूजा के लिए पुष्प तोड़कर लाने का कार्य सौंप रखा था। एक दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय रोहित को एक सर्प ने डस लिया। रोहित की मृत्यु हो गयी। दुखी मां तारावती जब अपने बेटे की पार्थिव देह लेकर शमशान पहुंची तो वहां उन्हें हरिश्चंद् मिले|
किसी ने रानी तारा को सुचना दी कि, उसके पुत्र को सांप ने डस लिया हैं। रानी ने सारे काम को छोड़कर वहां से निकलने की कोशिश की, लेकिन पंडित जी रानी को रोक लिया और सारे काम को निपटाने को कहा।
रानी तारा का दुर्भाग्य देखिये, बेटा मरा हुआ पड़ा हैं और वह उसके पास भी नहीं जा सकती। जब पंडितजी सो गए, तब रानी दौड़कर बगीचे की तरफ गयी।
रानी ने रोहित को देखकर रोने की कोशिश की लेकिन गाँव वालों के डर से वह खुलकर रो भी नहीं सकी। अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए वहां कोई रोने वाला भी नहीं था।
रानी तारा ने अपने साड़ी के पल्लू को फाड़ा और रोहित के शव को ढका। रानी ने रोहित को गोद में उठाया, और वहां से श्मसान की तरफ निकल गयी। श्मशान में पहुंचते ही रानी तारा फूट फूट कर रोने लगी।
रानी की आवाज़ को सुनकर हरिश्चंद् की नींद खुल गयी, और उठकर बोले कौन हैं?
राजा हरिश्चंद् के सर पर काला कपड़ा, और हाथ में एक लकड़ी थी। श्मशान की चिताओं की आग से हरिश्चंद् बिलकुल काले और भद्र हो गए थे। रानी ने उनको नहीं पहचाना और कहा – मैं रानी तारा हूँ और यह मेरा बेटा जिसको सांप ने डस लिया हैं, यहाँ अंतिम संस्कार के लिए आई हूँ।
राजा हरिश्चन्द् और रानी तारा दोनों रोने लगे। रानी ने होश संभाला और कहा स्वामी हमारे पुत्र का अंतिम संस्कार करना हैं।
राजा हरिश्चंद् बोले यहाँ अंतिम संस्कार करने के लिए तुम्हें पहले कर देना पड़ेगा। रानी ने कहा मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं हैं। रानी ने अपनी साड़ी के पल्लू को फाड़कर हरिश्चंद्र को सोंपते हुए बोली इसके अलावा मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं हैं।
गाँव लोग वहां आ पहुंचे और रानी तारा पर इल्जाम लगाया की वह गाँव से चोरी करके यहाँ आई हैं।चंडाल ने हरिश्चन्द् को तलवार थमाते हुए बोला कि इसकी गर्दन काट दो, तलवार को हाथ में लेकर राजा के हाथ रुक गए । रानी तारा ने कहा कि आप अपने हाथ मत रोकिये । ये आपके मालिक का आदेश हैं।
राजा हरिश्चंद् ने देखा कि भगवान स्वयं उनको रोकने के लिए आ गये। राजा हरिश्चंद् उनके चरणों में गिर पड़े, भगवान ने उनको उठाया और गले लगाया।
भगवान ने कहा – बहुत हुई तुम्हारी परीक्षा, तुम परीक्षा में सफ़ल हुए, तुम एक सच्चे सत्यवादी राजा हो। तुम सत्य की परीक्षा में पास हुए। तुम्हारे जैसा सत्यवादी राजा न तो आज तक हुआ हैं न आगे कभी होगा।
भगवान ने मरे हुए रोहित को जिन्दा कर दिया।महर्षि विश्वामित् ने उनको महल वापस सौंप दिया।राजा हरिश्चंद् और रानी तारावती उस महल में रहने लगे, और राजभोग भोगने लगे।
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